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इस तरह नहीं बचेगें बाघ
देश में हर साल टाइगर प्रोजेक्ट के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं बावजूद इसके बाघों की संख्या खतरनाक तरीके से घटती जा रहा है. पिछले चार सालों के दरमां एक अरब 96 करोड़ का पैकेज बाघ संरक्षण के लिए जारी किया जा चुका है. लेकिन हकीकत हमारे सामने है. वर्ष 2001-2002 में हुई गणना में देश में 3652 बाघ होने के दावे किए गये. ताजा गणना में 60 प्रतिशत से अधिक की कमी के साथ इनकी संख्या 1500 के आस-पास बताई गई मगर मौजूदा हालातों को देखते हुए यह बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि देश में इतने बाघ भी बचे होंगे. मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, उडीसा, झारखंड में कुल 601 बाघ बचे हैं जिनमें से 300 सिर्फ मध्यप्रदेश में ही हैं. 2004 के दौरान मध्यप्रदेश में इनकी संख्या 700 के करीब हुआ करती थी. पर अब यहां के टाइगर रिजर्वों की हालत भी कुछ खास ठीक नहीं चल रही. पन्ना का सच सामने आ चुका है, कान्हा में भी स्थिति बिगड़ती जा रही है. बीते कुछ दिनों में यहां दो बाघों की रहस्यमय तरीके से मौत ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं. पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने 2002 में जो रिपोर्ट जारी की थी उसमें कान्हा में बाघों की संख्या 131 बताई गई थी लेकिन 2006-07 तक पहुंचते-पहुंचते यह आंकड़ा 89 तक सिमट गया और अब ऐसी आशंका है कि यहां भी ज्यादा बाघ नहीं बचे हैं. हाल ही में शिकार की कुछ घटनाओं से बाघ संरक्षण के नाम पर किए जा रहे राज्य स्तरीय बड़े-बड़े दावों की असलीयत सामने आ चुकी है. बाघ सरंक्षण के प्रति सरकार की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि फॉरेस्ट गार्ड के बहुत से पद अब भी खाली पड़े हैं. सच तो यह है कि वन एवं पर्यावरण विभाग इस चुनौती से निपटने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं है. कर्मचारियोंको न तो पर्याप्त ट्रेनिंग दी जाती है और न ही उनके पास पर्याप्त सुविधाएं हैं. शिकारी अत्याधुनिक हथियारों का प्रयोग कर रहे हैं जबकि वन्य प्राणियों की हिफाजत का तमगा लगाने वालों के पास वो ही पुराने हथियार हैं. हालात ये हो चले हैं कि अधिकतर अधिकारी महज अपनी नौकरी बचाने के लिए काम कर रहे हैं. उनमें न तो वन्यजीवों के प्रति कोई संवेदना है और न ही काम के प्रति कोई लगाव. यही कारण है कि रोक के बावजूद बाघों का शिकार बड़े पैमाने पर जारी है. संगठित आपराधिक गिरोह वन्यजीवों की खाल की तस्करी में लगे हुए हैं. थोड़े से पैसे के लिए कहीं-कहीं वन विभाग के लोग भी इनकी मदद में शरीक हो जाते हैं. बाघों को बचाने के लिए स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिहं पहल कर चुके हैं. कई समीतियां बनाई गईं हैं, कई प्रोजेक्ट चलाए गये हैं मगर इस दुर्लभ प्राणी के अस्तित्व की टूटती डोर को थामने वाले सार्थक नतीजे अब तक सामने नहीं आ पाए हैं. जंगलों का सिमटना और उसमें मानवीय दखलंदाजी बदस्तूर जारी है. नतीजतन बाघों की रिहाइश वाले इलाकों में ही बाघों की संख्या घटती जा रही है. जंगल में पर्याप्त भोजन का आभाव हो चला है जिसके चलते बाघ गांवों का रुख कर रहे हैं और क्रूर इंसान के हाथों मारे जा रहे हैं. महज चंद दिनों में ही इसके बहुत से मामले सामने आ चुके हैं. उत्तर प्रदेश में दो बाघों को मारने की कोशिश चल रही है क्योंकि भूख की तड़पन में उनसे मानव का शिकार हो गया, वन विभाग खुद मोर्चा संभाला हुआ है. जंगल के राजा को जंगल में घेरकर मारने की कवायद से जंगल के बाशिंदे सहमे हुए हैं. कुछ समय पहले कुछ चीतों को भी मानव के हाथों मौत मिली थी, उनका कसूर भी इतना था कि वो भूख बर्दाश्त नहीं कर पाए और बस्तियों की तरफ रुख कर बैठे. बाघ जंगल से बाहर आते हैं तो लोगों द्वारा मार दिए जाते हैं. जंगल में रहते हैं तो शिकारियों का शिकार बन जाते हैं. संरक्षण ग्रहों में संरक्षण के नाम पर उनकी जिंदगी से जुआ खेला जा रहा है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर यह प्राणी बचे तो कैसे. सरकार भले ही इस बात को स्वीकार न करे मगर सच यही है कि जितनी तेजी से बाघों के घर सुरक्षित करने की योजनाएं परवान चढ़ी, जंगलों को टाइगर रिजर्व घाषित किया गया. उतनी ही तेजी से बाघ तस्करों के लालच और सरकार की सुस्ती का शिकार होते गये. जितनी तेजी से देश में बाघों की संख्या घट रही है उससे वो दिन दूर नहीं जब हमें राष्ट्रीय पशु के लिए किसी और जानवर को चुनना होगा. एक संस्था ने हाल ही में ऐसा कैंपेन चलाकर बाघों के मिटते अस्तित्व की तरफ ध्यान खींचने की कोशिश की है लेकिन उसकी यह कवायद कोई खास असर छोड़ पाएगी इसकी संभावना कम ही दिखाई पड़ती है. क्योंकि एक आम आदमी से लेकर देश की सर्वोच्च कुर्सी पर बैठा व्यक्ति भी इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है कि बाघ विलुप्ती के कगार पर हैं. लेकिन फिर भी बाघ सरंक्षण के नाम पर जुबान जमा खर्ची के अलावा कुछ नहीं किया जा रहा. इस दिशा में ठोस और गंभीर कदम उठाने की दरकार अब भी कायम है.
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