शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

क्या है बाघ इसे भी जानिए


बाघ जंगल में रहने वाला मांसाहारी स्तनपायी स्तनपायी पशु है। यह अपनी प्रजाति में सबसे बड़ा और ताकतवर पशु है। यह तिब्बत श्रीलंका और अंडमान निकोबार द्वीप-समूह को छोड़कर एशिया के अन्य सभी भागों में पाया जाता है। यह भारत नेपाल भूटान कोरिया अफगानिस्तान और इंडोनेशिया में अधिक संख्या में पाया जाता है। इसके शरीर का रंग लाल और पीला का मिश्रण है। इस पर काले रंग की पट्टी पायी जाती है। वक्ष के भीतरी भाग और पाँव का रंग सफेद होता है। बाघ १३ फीट लम्बा और ३०० किलो वजनी हो सकता है। बाघ का वैज्ञानिक नाम पेंथेरा टिग्रिस है। यह भारत का राष्ट्रीय पशु भी है। बाघ शब्द संस्कृत के व्याघ्र का तदभव रूप है।
इसे वन, दलदली क्षेत्र तथा घास के मैदानों के पास रहना पसंद है। इसका आहार मुख्य रूप से (हिरण) (अब तक बनाया नहीं)" सांभर चीतल (अब तक बनाया नहीं)" चीतल जंगली सूअर, भैंस जंगली हिरण और के पालतू पशु" हैं। अपने बड़े वजन और ताकत के अलावा बाघ अपनी धारियों से पहचाना जा सकता है। बाघ की सुनने, सूँघने और देखने की क्षमता तीव्र होती है। धारीदार शरीर के कारण शिकार का पीछा करते समय वह झाड़ियों के बीच इस प्रकार छिपा रहता है कि शिकार उसे देख ही नहीं पाता। बाघ बड़ी एकाग्रता और धीरज से शिकार करता है। यद्यपि वह बहुत तेज रफ्तार से दौड़ सकता है, भारी-भरकम शरीर के कारण वह बहुत जल्द थक जाता है। इसलिए शिकार को लंबी दूरी तक पीछा करना उसके बस की बात नहीं है। वह छिपकर शिकार के बहुत निकट तक पहुँचता है और फिर एक दम से उस पर कूद पड़ता है। यदि कुछ गज की दूरी में ही शिकार को दबोच न सका, तो वह उसे छोड़ देता है। हर बीस प्रयासों में उसे औसतन केवल एक बार ही सफलता हाथ लगती है क्योंकि कुदरत ने बाघ की हर चाल की तोड़ शिकार बननेवाले प्राणियों को दी है। बाघ सामान्यतः दिन में चीतल, जंगली सूअर और कभी-कभी गौर के बच्चों का शिकार करता है। बाघ अधिकतर अकेले ही रहता है। हर बाघ का अपना एक निश्चित क्षेत्र होता है। केवल प्रजननकाल में नर मादा इकट्ठा होते हैं। लगभग साढ़े तीन महीने का गर्भाधान काल होता है और एक बार में २-३ शावक जन्म लेते हैं। बाघिन अपने बच्चे के साथ रहती है। बाघ के बच्चे शिकार पकड़ने की कला अपनी माँ से सीखते हैं। ढाई वर्ष के बाद ये स्वतंत्र रहने लगते हैं। इसकी आयु लगभग १९ वर्ष होती है।
बाघ एक अत्यंत संकटग्रस्त प्राणी है। इसे वास स्थलों की क्षति और अवैध शिकार का संकट बना ही रहता है। पूरी दुनिया में उसकी संख्या ६,००० से भी कम है। उनमें से लगभग ४,००० भारत में पाए जाते हैं। भारत के बाघ को एक अलग प्रजाति माना जाता है, जिसका वैज्ञानिक नाम है पेंथेरा टाइग्रिस टाइग्रिस। बाघ की नौ प्रजातियों में से तीन अब विलुप्त हो चुकी हैं। ज्ञात आठ किस्‍मों की प्रजाति में से रायल बंगाल टाइगर उत्‍तर पूर्वी क्षेत्रों को छोड़कर देश भर में पाया जाता है और पड़ोसी देशों में भी पाया जाता है, जैसे नेपाल, भूटान और बांगलादेश भारत में बाघों की घटती जनसंख्‍या की जांच करने के लिए अप्रैल प्रोजेक्‍ट टाइगर" बाघ परियोजना) शुरू की गई। अब तक इस परियोजना के अधीन बाघ के २७ आरक्षित क्षेत्रों की स्‍थापना की गई है जिनमें ३७,७६१ वर्ग कि.मी. क्षेत्र शामिल है।
इतिहास
भारतीय बाघ अपने प्राकृतिक आवास में
बाघ के पूर्वजों के में रहने के निशान मिले हैं। हाल ही में मिले बाघ की एक विलुप्त उप प्रजाति के से पता चला है कि बाघ के पूर्वज मध्य चीन से भारत आए थे। वे जिस रास्ते से भारत आए थे कई शताब्दियों बाद इसी रास्ते को रेशम मार्ग" सिल्क रूट) के नाम से जाना गया। आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और अमेरिका में एनसीआई लेबोरेट्री आफ जीनोमिक डाइवर्सिटी के वैज्ञानिकों के मुताबिक में विलुप्त हो जाने वाले मध्य एशिया के कैस्पियन बाघ व रूस के सुदूर पूर्व में मिलने वाले साइबेरियाई या एमुर बाघ एक जैसे हैं। इस खोज से यह पता चलता है कि किस तरह बाघ मध्य एशिया और रूस पहुंचे। आक्सफोर्ड के वाइल्ड लाइफ रिसर्च कंजरवेशन यूनिट के एक शोधकर्ता कार्लोस ड्रिस्काल के अनुसार विलुप्त कैस्पियन और आज के साइबेरियाई बाघ सबसे नजदीकी प्रजातियां हैं। इसका मतलब है कि कैस्पियन बाघ कभी विलुप्त नहीं हुए। अध्ययन के हवाले से कहा गया है कि ४० साल पहले विलुप्त हो गए कैस्पियन बाघों का ठीक से अध्ययन नहीं किया जा सका था। इसलिए हमें डीएनए नमूनों को फिर से प्राप्त करना पड़ा। एक अन्य शोधकर्ता डा. नाबी यामागुची ने बताया कि मध्य एशिया जाने के लिए कैस्पियन बाघों द्वारा अपनाया गया मार्ग हमेशा एक पहेली माना जाता रहा। क्योंकि मध्य एशियाई बाघ तिब्बत के पठारी बाघों से अलग नजर आते हैं। लेकिन नए अध्ययन में कहा गया है कि लगभग १० हजार साल पहले बाघ चीन के संकरे गांसु गलियारे से गुजरकर भारत पहुंचे। इसके हजारों साल बाद यही मार्ग व्यापारिक सिल्क रूट के नाम से विख्यात हुआ।

शेर या बाघ? या दोनों ही??!!

आईये मिलिए दुनिया की सबसे बड़ी बिल्ली, या कहें बिल्लौटे से, जिसका नाम है हरक्यूलिस। शेर पिता और बाघ माँ की दोगली संतान हरक्यूलिस एक लाईगर(Liger) है और उसका नाम हरक्यूलिस बिलकुल सही है। तीन वर्ष की आयु वाले इस लाईगर की लंबाई 10 फ़ीट है और इसका वज़न करीब 500 किलोग्राम है।
अमेरिका के मिआमी शहर स्थित इंस्टीटूट ऑफ़ ग्रेटली एनडेन्जर्ड एण्ड रेअर स्पीशीस(Insititute of Greatly Endangered and Rare Species) में रहने वाले हरक्यूलिस एक बार में लगभग 100 पौंड(तकरीबन 45 किलोग्राम) माँस खा सकता है।
50 मील प्रति घंटे से भागने की क्षमता रखने वाले हरक्यूलिस को तैरना भी पसंद है। उसकी यह पसंद ज़ाहिर है बाघ माँ के कारण है क्योंकि शेर तो पानी में जाने से डरते हैं। हरक्यूलिस का जन्म इंस्टिटूट में शेरों और बाघों के एक ही बाड़े में रहने के कारण हुआ जब इंस्टिटूट वालों की निगाह में आए बिना हरक्यूलिस के पिता उसकी माँ की ओर आकर्षित हुए, क्योंकि अन्यथा जंगल के माहौल में तो शेर और बाघ के संबन्ध बनना लगभग असंभव है क्योंकि ये दोनों जातियाँ एक दूसरे की क्षत्रु होती हैं। वैसे भी मूलतः शेर अफ़्रीका में होते हैं और बाघ एशिया में, इसलिए इस कारण भी इनका आपस में कोई नाता नहीं बनता।
लेकिन हरक्यूलिस अपनी तरह का एकलौता प्राणी नहीं है। शेर और बाघ की दोगली संताने पिछले 50 वर्षों में कई बार उत्पन्न कराई गई हैं और हरक्यूलिस दुनिया में मौजूद कुछ लाईगरों में से एक है।

इस तरह नहीं बचेगें बाघ

देश में हर साल टाइगर प्रोजेक्ट के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं बावजूद इसके बाघों की संख्या खतरनाक तरीके से घटती जा रहा है. पिछले चार सालों के दरमां एक अरब 96 करोड़ का पैकेज बाघ संरक्षण के लिए जारी किया जा चुका है. लेकिन हकीकत हमारे सामने है. वर्ष 2001-2002 में हुई गणना में देश में 3652 बाघ होने के दावे किए गये. ताजा गणना में 60 प्रतिशत से अधिक की कमी के साथ इनकी संख्या 1500 के आस-पास बताई गई मगर मौजूदा हालातों को देखते हुए यह बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि देश में इतने बाघ भी बचे होंगे. मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, उडीसा, झारखंड में कुल 601 बाघ बचे हैं जिनमें से 300 सिर्फ मध्यप्रदेश में ही हैं. 2004 के दौरान मध्यप्रदेश में इनकी संख्या 700 के करीब हुआ करती थी. पर अब यहां के टाइगर रिजर्वों की हालत भी कुछ खास ठीक नहीं चल रही. पन्ना का सच सामने आ चुका है, कान्हा में भी स्थिति बिगड़ती जा रही है. बीते कुछ दिनों में यहां दो बाघों की रहस्यमय तरीके से मौत ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं. पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने 2002 में जो रिपोर्ट जारी की थी उसमें कान्हा में बाघों की संख्या 131 बताई गई थी लेकिन 2006-07 तक पहुंचते-पहुंचते यह आंकड़ा 89 तक सिमट गया और अब ऐसी आशंका है कि यहां भी ज्यादा बाघ नहीं बचे हैं. हाल ही में शिकार की कुछ घटनाओं से बाघ संरक्षण के नाम पर किए जा रहे राज्य स्तरीय बड़े-बड़े दावों की असलीयत सामने आ चुकी है. बाघ सरंक्षण के प्रति सरकार की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि फॉरेस्ट गार्ड के बहुत से पद अब भी खाली पड़े हैं. सच तो यह है कि वन एवं पर्यावरण विभाग इस चुनौती से निपटने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं है. कर्मचारियोंको न तो पर्याप्त ट्रेनिंग दी जाती है और न ही उनके पास पर्याप्त सुविधाएं हैं. शिकारी अत्याधुनिक हथियारों का प्रयोग कर रहे हैं जबकि वन्य प्राणियों की हिफाजत का तमगा लगाने वालों के पास वो ही पुराने हथियार हैं. हालात ये हो चले हैं कि अधिकतर अधिकारी महज अपनी नौकरी बचाने के लिए काम कर रहे हैं. उनमें न तो वन्यजीवों के प्रति कोई संवेदना है और न ही काम के प्रति कोई लगाव. यही कारण है कि रोक के बावजूद बाघों का शिकार बड़े पैमाने पर जारी है. संगठित आपराधिक गिरोह वन्यजीवों की खाल की तस्करी में लगे हुए हैं. थोड़े से पैसे के लिए कहीं-कहीं वन विभाग के लोग भी इनकी मदद में शरीक हो जाते हैं. बाघों को बचाने के लिए स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिहं पहल कर चुके हैं. कई समीतियां बनाई गईं हैं, कई प्रोजेक्ट चलाए गये हैं मगर इस दुर्लभ प्राणी के अस्तित्व की टूटती डोर को थामने वाले सार्थक नतीजे अब तक सामने नहीं आ पाए हैं. जंगलों का सिमटना और उसमें मानवीय दखलंदाजी बदस्तूर जारी है. नतीजतन बाघों की रिहाइश वाले इलाकों में ही बाघों की संख्या घटती जा रही है. जंगल में पर्याप्त भोजन का आभाव हो चला है जिसके चलते बाघ गांवों का रुख कर रहे हैं और क्रूर इंसान के हाथों मारे जा रहे हैं. महज चंद दिनों में ही इसके बहुत से मामले सामने आ चुके हैं. उत्तर प्रदेश में दो बाघों को मारने की कोशिश चल रही है क्योंकि भूख की तड़पन में उनसे मानव का शिकार हो गया, वन विभाग खुद मोर्चा संभाला हुआ है. जंगल के राजा को जंगल में घेरकर मारने की कवायद से जंगल के बाशिंदे सहमे हुए हैं. कुछ समय पहले कुछ चीतों को भी मानव के हाथों मौत मिली थी, उनका कसूर भी इतना था कि वो भूख बर्दाश्त नहीं कर पाए और बस्तियों की तरफ रुख कर बैठे. बाघ जंगल से बाहर आते हैं तो लोगों द्वारा मार दिए जाते हैं. जंगल में रहते हैं तो शिकारियों का शिकार बन जाते हैं. संरक्षण ग्रहों में संरक्षण के नाम पर उनकी जिंदगी से जुआ खेला जा रहा है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर यह प्राणी बचे तो कैसे. सरकार भले ही इस बात को स्वीकार न करे मगर सच यही है कि जितनी तेजी से बाघों के घर सुरक्षित करने की योजनाएं परवान चढ़ी, जंगलों को टाइगर रिजर्व घाषित किया गया. उतनी ही तेजी से बाघ तस्करों के लालच और सरकार की सुस्ती का शिकार होते गये. जितनी तेजी से देश में बाघों की संख्या घट रही है उससे वो दिन दूर नहीं जब हमें राष्ट्रीय पशु के लिए किसी और जानवर को चुनना होगा. एक संस्था ने हाल ही में ऐसा कैंपेन चलाकर बाघों के मिटते अस्तित्व की तरफ ध्यान खींचने की कोशिश की है लेकिन उसकी यह कवायद कोई खास असर छोड़ पाएगी इसकी संभावना कम ही दिखाई पड़ती है. क्योंकि एक आम आदमी से लेकर देश की सर्वोच्च कुर्सी पर बैठा व्यक्ति भी इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है कि बाघ विलुप्ती के कगार पर हैं. लेकिन फिर भी बाघ सरंक्षण के नाम पर जुबान जमा खर्ची के अलावा कुछ नहीं किया जा रहा. इस दिशा में ठोस और गंभीर कदम उठाने की दरकार अब भी कायम है.

दुनिया भर के सिंहों पर विलुप्त होने का खतरा

दुनिया में शेर मात्र अफ्रीका और भारत में ही पाये जाते हैं, और इन पर विलुप्त होने का खतरा मंडराने लगा है.अफ्रीका के केन्या के मसाईमारा जंगल में करीब 2000 शेर बचे हैं और केन्या वाइल्डलाइफ़ सर्विस की मानें तो अगले 20 साल के अंदर ये सभी शेर विलुप्त हो सकते हैं. इसकी वजह है शिकार की कमी, लोगों द्वारा जहर देना, जंगलों में मानव की घुसपैठ, वातावरण में बदलाव और बीमारियां 2002 में केन्या में शेरों की संख्या 2749 थी जो अब घट कर 2000 के आसपास रह गयी है, जो कि चिंता का विषय है केन्या के लिए सिहं सम्मान का विषय रहे हैं. वे वहा के जनजीवन का हिस्सा हैं और पर्यटन का मुख्य आकर्षण भी जिससे केन्या को अच्छा राजस्व प्राप्त होता है.इसलिए शेरों की संख्या में कमी केन्या के लिए काफ़ी चिंताजनक है.दूसरी तरफ़ ऐशयाई सिंह मात्र भारत में गुजरात के गीरनार अभ्यारण में पाये जाते हैं.यहां इनकी संख्या करीब 250 के आसपास की है इनमें से कुछ सिहों को मध्यप्रदेश के कुना जंगल में स्थलांतरित करने की मांग अरसे से उठ रही है इसकी वजह यह बताई जाती है कि सिह एक ही स्थान पर रहें तो महामारी तथा अन्य कारणों की वजह से उनके खत्म होने की आशंका बनी रहती है इसलिए सिंहो को मध्यप्रदेश के कुना जंगल में भी स्थलांतरित करना चाहिए जो कि गीर जंगल से अधिक घना भी है. लेकिन सिंह चूंकि गुजरात के जनमानस से भावनात्मक रूप से जुड़े हए हैं, इसलिए गुजरात सरकार सिंहों के कुछ जोड़ों को मध्यप्रदेश स्थलांतरित करने के पक्ष में नहीं है.